जनसंख्या का बढ़ता दाएरा कही भारी न पड जाये!

जनसंख्या का बढ़ता दाएरा कही भारी न पड जाये!

विश्व जनसंख्या दिवस जैसा मौका हो तो भारत में बढ़ती जनसंख्या पर चिंता या चिंतन करने का इससे अच्छा और कौन सा मौका हो सकता है. इस आयोजन से जनसंख्या नियंत्रण के लिए काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं ने माना की जनसंख्या देश के लिए प्रगति का मार्ग तो हो सकता हे लेकिन इस का दूसरा पहलु भी देखना जरुरी हे जिस से हम अभी तक अज्ञानता का चेहरा लगाये हुए हे/ जिस प्रकार छेत्रफल कम हो रहा हे उस से देख कर तो आनेवाला कल दुखो का अम्बार लेकर आने वाला हे लेकिन इस ओर राजनीती दलो का अपने हितो में वोट बटोरना हे न किसी को देश की चिंता हे जब की इस पर सभी राज नेताओ को बहुत पहले ही चिंतन करना चाहिए था लेकिन कौन बिल्ली के गले में घंटी बाधने को तयार हे/ इस से साफ हे की की आने वाले कुछ साल के बाद हमारी जिस प्रकार से जनसंख्या बढ़ेगी और सुविधा कम होगी या यू कहे के गरीबी के साथ अन की पैदावार भी कम होगी/ भले ही हम इस बात को नकारते हो की देश की बढती हुई जनसख्या से देश प्रगति की ओर बढेगा सही हे पर क्या जनसख्या ही देश महँ बना सकती हे इस बात के लिए तो अगर कहा जाये तो कम जनसख्या के साथ इजराएल हमरे देश से हर चीज में आगे हे तो क्या कही गरीबी की बाढ़ दिख रही हे वहा या फिर उन के देश में सुविधाओ का आभाव हे /जिस प्रकार से हमारे देश की जनसख्या देश राजनेताओ के लिए फायेदे का सौदा हे उसी प्रकार से देश के पत्थर बजो को १० लाख का इनाम देकर उन को प्रेरित किया जाता हे / इच्छा शक्ति की भी जरुरत होती हे जो हमारे देश के राज नेताओ में तो बिलकुल नहीं हे अगर होती तो किसी की इतनी मजाल के शर्धालुओं पर या फिर जम्मू कश्मीर में अभी तक अलगावादी की सुविधा बंद न होती /कई छात्रों से पूछा गया

ज्यादा छात्रों से यह सुनकर सकते में आ गए कि देश में बढ़ती आबादी समस्या ही नहीं है. इतना ही नहीं उन्होंने तो ज्यादा आबादी को वरदान साबित कर दिया. कुछ  छात्रों को समझाया कि बढ़ती जनसंख्या हमारे सामने कौन-कौन सी समस्याएं पैदा कर रही है.  इस तरह की दुविधा देखकर इस मुददे के कुछ खास पहलुओं पर विमर्श की जरूरत दिख रही है.

उनका तर्क होता है कि जन यानी मानव एक मैन पावर कैपिटल है यानी श्रम शक्ति है और इस तरह उनका तर्क होता है कि किसी देश में श्रम शक्ति बढ़ना तो अपने आप में एक वरदान है. उनका यकीन इस बात में है कि मानव को एक संसाधन मानते हुए जनसंख्या वृद्धि एक तरह से देश का विकास है. हां वे यह जरूर मान लेते हैं कि हमारे देश में मानव रूपी संसाधनों के विकास में अड़चने आ रही हैं. हम संसाधन रूपी मानवों का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं. इस तरह से जनसंख्या को समस्या न मानने वालों का अंतिम उत्तर यह होता है कि यह हमारी व्यवस्था का दोष है कि वह हर हाथ को काम और हरेक को भोजन पानी मुहैया कराने का काम कर नहीं पा रही है. ऐसा मानने वाले लोग देश की आर्थिक वृद्धि दर के आंकड़ों को पेश करते हैं. और इसी वृद्धि दर के आंकड़ों के जरिए जनसंख्या वृद्धि दर की चिंता को व्यर्थ की चिंता सिद्ध कर जाते हैं. अपनी दलील में वे सबसे ज्यादा आबादी वाले चीन का हवाला जरूर देते हैं.

कई लोगो की दलील है कि हमारे देश के पास दुनिया के कुल भू भाग की तुलना में सिर्फ ढाई फीसद ज़मीन है. जबकि हमारी आबादी दुनिया की कुल आबादी की 18 फीसद है. पृथ्वी पर समवितरण के सरल समीकरण के लिहाज से हमारी आबादी सात गुनी ज्यादा बैठ रही है. यानी हमारे पास संसाधन एक बटा सात हैं. वैसे इस कमी को अपनी आजादी के बाद के 70 साल में हम अपने सुप्रबंधन से बेअसर करते चले आ रहे हैं. संयोग से हमारे देश की जलवायु ने हमें भोजन पानी के मामले में अब तक निश्चिंत बनाए रखा. लेकिन प्राकृतिक संसाधनों की एक सीमा है. अगर पानी को जीवन का पर्याय मान लें तो प्रकृति से जल की उपलब्धता लगभग स्थिर है. हमें पूरी दुनिया में जल उपलब्धता की तुलना में कोई चार फीसद पानी मुहैया है. सो दुनिया की ढाई फीसद जमीन के मालिक होने के नाते यह पानी अब तक उतना कम नहीं पड़ा. लेकिन ऐसा अभी तक ही था. आगे दस बीस साल बाद तक अगर जनसंख्या वृद्धि दर पौने दो फीसद बनी रहती है तो कोई सूरत नहीं दिखती कि हम अपने लिए भोजन और पानी का भी न्यूनतम प्रबंध कर पाएंगे. याद रहे कि इस समय भी अपनी 134 करोड़ जनसंख्या के हिसाब से प्रति व्यक्ति दो हजार घनमीटर पानी का प्रबंध हम नहीं कर पा रहे हैं. दो हजार घनमीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष के अंतरराष्टीय मानक को भूलते-भुलाते हम इस मानक को एक हजार घनमीटर पर लाने की जुगत में लगे हैं लेकिन ऐसी जुगत करने वालों से कभी भी कोई पूछ बैठेगा कि अंतरराष्टीय मानकों को कोई देश कैसे नकार सकता है. हमारे पास इसका कोई संतोषजनक जवाब होगा नहीं. आखिर हमें यह मानना ही पड़ेगा कि अपने देश के भू भाग पर होने वाली वर्षा से ज्यादा पानी हमें कहीं से भी नहीं मिल सकता. एक ही चारा है कि हम जनसंख्या स्थिरीकरण का कोई लक्ष्य बनाएं तो वह पानी की उपलब्धता के आधार पर बनाएं.

सन 2030 और 2050 के लिए अनाज की मांग के जो आंकड़े बन रहे हैं वे होश उड़ा रहे हैं. ये अनुमान हमारी बढती जनसंख्या की रफ्तार के हिसाब से ही लगे हैं. सरकारी आकड़ो  से ही देखने लगे तो दस साल बाद की अनुमानित आबादी के लिए हमें 30 करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी. ये अनाज जमीन पर ही और पानी के सहारे ही उगता है. जितने भी हिसाब लग रहे हैं वे यह सोचने को मजबूर कर रहे हैं कि खेती की जमीन हम कैसे बढ़ाएंगे और उतना पानी कैसे पैदा करेंगे? गुणवत्ता से समझौता करके और जैनेटिक टैक्नोलॉजी के खतरे मोल लेकर भी आने वाले 20 साल में अपनी जरूरत का भोजन और पानी हासिल करने का कोई उपाय फिलहाल तो

हम नहीं सोच पा रहे हैं/ आगे कोई उपाय निकल आए वह किसने देखा लेकिन निकट भविष्य के लिए आज अगर बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला करना हो तो जनसंख्या नियंत्रण या स्थिरीकरण के विशेष उपाय सोचने के अलावा फिलहाल तो कोई चारा नजर नहीं आता.

देहरादून से आइडिया फॉर न्यूज़ के लिए अमित सिंह नेगी की रिपोर्ट !

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *