शास्त्रीय संगीत, फिर से सराहा जा रहा है
लखनऊ। अपनी ख्याल गायकी से सात समंदर पार तक श्रोताओं को मोहित कर चुके बनारस घराने के गायक बंधु पद्मभूषण पंडित राजन-साजन मिश्र का मानना है कि संगीत किसी भाषा का मोहताज नहीं है। जिस तरह पूरी दुनिया में इंसानों के खून का रंग एक जैसा है और संवेदनाएं भी एक समान हैं, वैसी ही अनुभूति शास्त्रीय संगीत की भी है। शनिवार को ‘जागरण फोरम’ की संध्या को सजाने लखनऊ आए पद्मभूषण बंधुओं ने शास्त्रीय गायन के वर्तमान और भविष्य पर ‘जागरण’ से विचार साझा करते हुए फिर से सुनहरे दौर के लौटने की उम्मीद जताई।
पंडित राजन मिश्र कहते हैं कि युग चाहे जितना बदल रहा हो, शास्त्रीय संगीत में संभावनाएं अपार हैं। यह हमारे खून से जुड़ा है। लहरों की तरह बाहर से विभिन्न संस्कृतिया आती हैं और चली जाती हैं, लेकिन हमारे मूल बसी संस्कृति और कला कायम रहती है। पंडित जी कहते हैं कि देश कोई भी हो, संगीत के वही सात स्वर हैं। यह स्वर जब हृदय की गहराइयों में उतरते हैं तो भाषा और देश की सीमा मिट जाती है। पंडित साजन मिश्र कहते हैं कि शास्त्रीय संगीत को सुनने वाले बहुत हैं, लेकिन आज संगीत के नाम पर बहुत कुछ शोर भी परोसा जा रहा है, यह गलत है। पद्मभूषण बंधुओं को शास्त्रीय गायन में नई पीढ़ी से तो खासी उम्मीदें हैं, लेकिन उनके लिए पर्याप्त अवसर न होने से वे व्यथित भी हैं। पंडित राजन मिश्र कहते हैं- नए लोगों में बहुत टैलेंट सामने आ रहा है, लेकिन प्लेटफार्म यदि दिखाई दे तो और लोग भी सामने आएंगे। वह कहते हैं-टीवी पर गायन की प्रतियोगिताओं से जो प्रतिभाएं सामने आती हैं, वह सब जगह सराही जाती हैं, लेकिन अंत में उनका होता क्या है। उन्हें कहा स्थान मिलता है? कुछ दिन की चमक के बाद उनका कहीं पता नहीं चलता। यह नहीं होना चाहिए। पंडित जी का मानना है कि नई प्रतिभाओं को सामने लाने के प्रयास के साथ ही ऐसा ढाचा भी विकसित किया जाना चाहिए कि जिससे प्रतिभाओं को पोषण मिले। इस बारे में प्रोड्यूसर गिल्ड से भी कहा जाना चाहिए कि फिल्मों में वे कम से कम एक गाना तो ऐसे उभरते कलाकारों को दें।
पंडित राजन मिश्र कहते हैं कि ऐसा ही शास्त्रीय संगीत के साथ है। सरकारी आयोजनों में बॉलीवुड के कार्यक्रमों के साथ शास्त्रीय संगीत को मंच पर कुछ समय दिया जाता है, इसमें सुधार होना चाहिए। सास्कृतिक चेतना से ही उत्थान व प्रगति की संभावना देख रहे पंडित राजन मिश्र कहते हैं कि जिन प्रदेशों में ऐसी चेतना है, वे उत्तम हो गए। बिहार-यूपी में भी कभी ऐसी चेतना थी। लखनऊ, बनारस और पटना प्रमुख सास्कृतिक गढ़ थे, लेकिन सास्कृतिक पतन हुआ तो कई तरह की गिरावट सामने आई। गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों को गिनाते हुए पद्मभूषण बंधु कहते हैं कि इन प्रदेशों में जिस तरह कला-संस्कृति के प्रति जागरूकता का नतीजा विकास के रूप में नजर आ रहा है, वैसा ही उत्तर प्रदेश में भी हो सकता है।